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ज्योतिष क्या है?

वैदिक-पुराणिक परम्परा पर आधारित ग्रह नक्षत्रों की गणना को ज्योतिष कहते हैं, जिसमे पारंपरिक एस्ट्रोनॉमी (खगोल विज्ञान) भी सम्मिलित है। ज्योतिष वेद का एक अंग (वेदांग) माना जाता है, जिस कारण इसे मानने वाले इसे वैदिक-ज्योतिष कहते हैं, जबकि विदेशियों द्वारा इसे हिन्दू या इंडियन एस्ट्रोलॉजी कहा जाता है।ज्योतिष की सर्वोत्तम और संक्षिप्त परिभाषा है : कर्म-फल-विपाक-काल-विधानं, अर्थात कर्म के फल परिपक्व होने के काल का विधान। ज्योतिष कर्म-फल के सन्दर्भ में भाग्य का अध्ययन करता है। कर्म का दृष्ट और अदृष्ट फल कर्मफल कहलाता है। ज्योतिष की भविष्य वाणियाँ कर्मफलों को ही प्रतिबिम्बित करती हैं। सभी कर्मों के फल तत्क्षण ही फल नहीं देते। कुछ फल तत्काल ही घटित होते हैं, जबकि अन्य फल गहन और दूरगामी परिणाम देते हैं, जो अक्सर अगले जन्मों पर भी प्रभाव डालते हैं। ज्योतिष ऐसे ही अस्पष्ट और अबूझ कर्मफलों का अध्ययन करता है जो हमें याद भी नहीं रहते। प्रारब्ध (भाग्य) पिछले कर्मों के फलों का वह हिस्सा है जो प्रभावी बन चुका है और जिसने गौण कर्मफलों को निष्क्रिय कर दिया है क्योंकि प्रभावी फलों का गौण फलों से तालमेल नहीं बैठता। उदाहरणार्थ, यदि किसी के भाग्य में मनुष्य बनना लिखा है तो कुत्ते वाले संस्कार दब जायेंगे। क्रियमान प्रारब्ध के कारण ही किसी व्यक्ति को जाति, आयु और भोग प्राप्त होते हैं। शेष संस्कार संचित रह जाते हैं और अगले जन्मों में सक्रिय होते हैं।छ वेदांगों में से एक वेदांग ज्योतिष माना जाता है। ज्योतिष का प्राचीनतम साक्ष्य वेद में पाया जाता है। वेदांग के रूप में ज्योतिष का प्राचीनतम उल्लेख मुण्डक उपनिषद् और छान्दोग्य उपनिषद् में मिलता है। छान्दोग्य उपनिषद् में नारद जी ने एक पृथक विषय के रूप में ज्योतिष का अध्ययन करने का उल्लेख किया। यजुर्वेद में प्रथम वैदिक यज्ञ का नाम है दर्श-पौर्णमास यज्ञ, जिसके लिए तिथि का सही ज्ञान आवश्यक है। दर्श का अर्थ है अमावस और पूर्णिमा, को पूर्णमास कहते हैं, जिससे स्पष्ट है कि 30 तिथियों के मास की परिभाषा वैदिक काल में विद्यमान थी। ऋग्वेद के प्रथम मण्डल के सूक्त-164 में सौर-वर्ष को 12 भागों में विभक्त करने का वर्णन है। वेदों में मुख्यतः यज्ञों का वर्णन है जिनके लिए सही मुहूर्त की गणना हेतु ज्योतिष आवश्यक था। ज्योतिष को वेद की आँख कहा जाता है क्योंकि ज्योतिष आत्मा के अस्तित्व को इस तरह सिद्ध करता है कि जीवात्मा पिछले कर्मफलों को भोगने के लिये पुनर्जन्म लेता है और ये कर्मफल कुण्डली के फलादेश के रूप में व्यक्त होते हैं।वैदिक संहिताओं और ब्राह्मण ग्रंथों में 27 एवं 28 नक्षत्रों की दोनों प्रणालियों का वर्णन है। उदाहरणार्थ, ताण्ड्य ब्राह्मण में 27 नक्षत्रों की सूची है आज भी कई कार्यों में 27 नक्षत्रों की प्रणाली का प्रयोग होता है तो कई अन्य कार्यों में 28 नक्षत्रों की प्रणाली का प्रयोग होता है, अतः यह वैदिक काल से ही है।